वक्त की मांग है कि ,
तुम तीन साल में ही तीस की हो जाओ
ये बचपन किस काम का है तुम्हारे
ये बस तुम्हें अबोध रखेगा |
तुम कैसे समझ पाओगी जब कोई हाथ,
अनायास ही तुम्हें टटोल जाएगा |
या फिर कोई पुचकार के तुम्हें,
मिठाई के बहाने कहीं और ले जाएगा |
तुम तो अभी दादा – दादी को भी,
नहीं पहचान पाती कभी कभी |
तुम कैसे इन हजारों चेहरों में
सच और झूठ पहचान पाओगी |
तुम कैसे पढ़ पाओगी,
की किसी की आँखों में आज वहशीपन है,
या कोई हत्या के इरादे से आया है आज |
तुम्हारी वर्णमाला की किताब तो अभी कल ही आयी है
और हत्या तो काफी कठिन शब्द है |
तभी मैं कह रहा हूँ ,
उतार फेंको ये बचपना , और नाखून बड़े करो
नोचना सीखो , लात मरना सीखो |
ये गुड़िया और बाकी के मुलायम खिलौने जला दो
समय ने इनको नकारा बना दिया है |