याद है वो शहर जहाँ ख्वाबों के तकिए होते थे
वजहों की बत्ती गुल करके हम नींद की फलियाँ बोते थे
याद है जब नर्म धूप से दर्द पिघल से जाते थे
नीले नीले से अम्बर में हम मीलों उड़ के आते थे
याद है वो रात की चादर जिनसे तारे टूटा करते थे
और हम चुपके से आँखे मूंदे एक लम्बी सी ख्वाहिश करते थे
याद है वो खेत जहाँ फसलें खुशियों की पकती थीं
मुट्ठी भर ही मिले सही पर कुछ कुछ सबमे बटती थीं
तभी किसी ने टोका मुझे और बोला ये कौन सा शहर है भाई
सपना – वपना देख रहे हो क्या , लगता है बड़े दिन बाद आये हो
शहर तो वो देखो भागे जा रहा है
कई साल हो गए जागे जा रहा है
शहर के पास अब काम धंधा है
तुम जब मिले थे तब शायद काम पर नहीं जाता था
अभी भी आवाज दोगे तो एक नज़र देखेगा तुम्हे
पर रुकेगा नहीं , अब वो किसी के लिए नहीं रुकता
न रुकता है न थकता है ,
और हाँ ,
ख्वाब और ख्वाहिश अब यहाँ नहीं रहते
दोनो एक दिन जाते दिखे फिर लौट के नहीं आये
उनके घरों में अब बहरूपिये रहते हैं
तुम भी मिल आओ ।