मंजिलों की कश्मकश
उलझा गयी कुछ यूँ हमें
सर खपाना याद रखा
पर मुस्कुराना भूल आये
आकड़ों की गश्त से
सहमे हुए हैं ख्वाब सारे
हमने हर पैमाना याद रखा
पर गुनगुनाना भूल आये
मंजिलों की कश्मकश
उलझा गयी कुछ यूँ हमें
सर खपाना याद रखा
पर मुस्कुराना भूल आये
आकड़ों की गश्त से
सहमे हुए हैं ख्वाब सारे
हमने हर पैमाना याद रखा
पर गुनगुनाना भूल आये
वक्त की मांग है कि ,
तुम तीन साल में ही तीस की हो जाओ
ये बचपन किस काम का है तुम्हारे
ये बस तुम्हें अबोध रखेगा |
तुम कैसे समझ पाओगी जब कोई हाथ,
अनायास ही तुम्हें टटोल जाएगा |
या फिर कोई पुचकार के तुम्हें,
मिठाई के बहाने कहीं और ले जाएगा |
तुम तो अभी दादा – दादी को भी,
नहीं पहचान पाती कभी कभी |
तुम कैसे इन हजारों चेहरों में
सच और झूठ पहचान पाओगी |
तुम कैसे पढ़ पाओगी,
की किसी की आँखों में आज वहशीपन है,
या कोई हत्या के इरादे से आया है आज |
तुम्हारी वर्णमाला की किताब तो अभी कल ही आयी है
और हत्या तो काफी कठिन शब्द है |
तभी मैं कह रहा हूँ ,
उतार फेंको ये बचपना , और नाखून बड़े करो
नोचना सीखो , लात मरना सीखो |
ये गुड़िया और बाकी के मुलायम खिलौने जला दो
समय ने इनको नकारा बना दिया है |
आसिफा मैं उम्मीद करता हूँ ,
तुम कहीं गुड्डे-गुड़िया की शादी के,
इन्तज़ाम में व्यस्त होगी।
या फिर नए चमकदार कपड़े पहने ,
बाबा का हाथ थामे मेले में जा रही होगी।
आसिफा मैं उम्मीद करता हूँ,
कि तुमने कोई नया गाना सीखा होगा
जो तुम दिन रात गाती होगी |
या फिर स्कूल से कुछ नया सीख कर
अम्मा को बताती होगी।
आसिफा मै उम्मीद करता हूँ,
कि तुम जोर से खिलखिलाती होगी
इतना जोर से कि , बगल वाले चाचा जो कभी नहीं हॅसते
वो भी मुस्कुराने लगें।
आसिफा मै उम्मीद करता हूँ
कि तुम ज़िद करती होगी
अड़ जाती होगी अपनी बात पे
अम्मा – बाबा सब मिल के तुम्हें मनाते होंगे |
मेरी एक आखिरी उम्मीद है
कि जहाँ तुम गयी हो
वहाँ किसी का कोई नाम ना हो।
और ज्यादा कुछ नहीं बचा है लिखने को
और लिखने से क्या बदल जाएगा , है ना।
उम्मीद पे दुनिया कायम है ,
ऐसा मेरी अम्मा कहती हैं
तो मैं बस उम्मीद करता हूँ।
तो थोड़े पेड़ और काट दो
ऐसी भी क्या मजबूरी है
सारे खुश हैं प्रगति देखकर
इसमें सबकी मंजूरी है
इतने से क्या होता है
मैंने तो नहीं देखा कि ,
पेड़ कटे तो जंगल रोता है
अरे ये हमारी उत्पादकता का औजार है
और तुम कहते हो कि बच्चे साँस लेने से बीमार हैं
ऐसा कुछ नहीं होता
ये तो विकास रोकने के बहाने हैं
जरा पता करो वो ईंट के ट्रक कब आने हैं
ध्यान रखना ईटें हर जगह बिछ जायें
नया शहर ये पढ़े-लिखों का ,
उनको मिट्टी ना दिख जाए |
ये गलत है
गलत तो वो भी था
मेरा एक सवाल है
आज ही क्यूँ
इस मुद्दे पर बात करते हैं
पहले पिछला हिसाब करते हैं
आज जो हुआ गलत हुआ, ये तो तुम भी मानते हो
दस साल पहले, यही वहाँ भी हुआ था क्या तुम जानते हो
समस्या का कोई तो हल होगा
तुम्हारे कामों का ऐसा ही फल होगा
हमें मिलकर सोचना होगा
समय आ गया है,सबको अपना हिस्सा नोचना होगा |
आओ धर्म – जात की पुस्तक खोलें,
पढ़े लाइने जोर जोर से
ऊँच -नीच की कविता बोलें
शंका की फिर स्याही घोलें
तुझको तेरे नाम से तोलें
इतिहास टटोलें ,
द्वेष भरा हर पन्ना खोलें
तारीखों , वर्षों का सन्दर्भ निकालें
फिर अपने – अपने मोर्चे संभालें
तर्कों के अब तीर चलेंगे
वाद – विवाद गंभीर चलेंगे
हिंसा के इस वृहद् मार्च में
सब देवगड़ और पीर चलेंगे
छोड़ छन्द चौपायों का चक्कर
तुलसी धनुष पे ताने तीर चलेंगे
शेर शायरी रख ताखे पे ,
अब ग़ालिब लेकर शमशीर चलेंगे
सब वीर लड़ेंगे, काटेंगे
चौका चूल्हा सब बाटेंगे
लोकतंत्र के फटे ढोल
रण-भूमि में दिन भर बाजेंगे
इधर मौत, उस ओर जश्न
उधर मरे तो हम नाचेंगे
देखो-देखो गौर से देखो
क्या से क्या संसार हुआ
हर आँगन शमशान खुला
सपना शांति का साकार हुआ
अब खून सने जनेऊ ढूंढो
और जले हुए ताबीज़ संभालो
सब अपनी अपनी छाती पीटो
और फिर से कटने मरने की,
नयी कोई तरकीब निकालो ।
छोड़ दे बेचैन रहना
चलो जो बन पाए वो करते हैं
लड़ते जाना भिड़ते जाना
तो हिम्मत है ही
कभी-कभी हिम्मत है ये भी कहना,
कि डरते हैं
मंजिल दौड़कर पा जाओगे
तो फिर क्या दौड़ने का मजा
आइये हुजूर जरा
मुंह के बल भी गिरते हैं
कभी जो हो जाए,
इज़्ज़त का फालूदा
फ्रिज में रखना और कहना,
चलो अब इसको ठंडा करते हैं
हारने के डर से बैठे हो,
अखाड़ा छोड़कर
आओ दो दो हाथ करें
कीचड़ में कुश्ती लड़ते हैं
तमाशा देखने बैठी है दुनिया
और हम तुम बन्दर बन बीच खड़े
बाँध घुँघरू ,नाच मेरे संग
भले ही दुनिया लाख कहे ,
देखो दो मूरख बन्दर क्या करते हैं ।
याद है वो शहर जहाँ ख्वाबों के तकिए होते थे
वजहों की बत्ती गुल करके हम नींद की फलियाँ बोते थे
याद है जब नर्म धूप से दर्द पिघल से जाते थे
नीले नीले से अम्बर में हम मीलों उड़ के आते थे
याद है वो रात की चादर जिनसे तारे टूटा करते थे
और हम चुपके से आँखे मूंदे एक लम्बी सी ख्वाहिश करते थे
याद है वो खेत जहाँ फसलें खुशियों की पकती थीं
मुट्ठी भर ही मिले सही पर कुछ कुछ सबमे बटती थीं
तभी किसी ने टोका मुझे और बोला ये कौन सा शहर है भाई
सपना – वपना देख रहे हो क्या , लगता है बड़े दिन बाद आये हो
शहर तो वो देखो भागे जा रहा है
कई साल हो गए जागे जा रहा है
शहर के पास अब काम धंधा है
तुम जब मिले थे तब शायद काम पर नहीं जाता था
अभी भी आवाज दोगे तो एक नज़र देखेगा तुम्हे
पर रुकेगा नहीं , अब वो किसी के लिए नहीं रुकता
न रुकता है न थकता है ,
और हाँ ,
ख्वाब और ख्वाहिश अब यहाँ नहीं रहते
दोनो एक दिन जाते दिखे फिर लौट के नहीं आये
उनके घरों में अब बहरूपिये रहते हैं
तुम भी मिल आओ ।
ना जाने इसकी ग़लती थी या उसकी ग़लती थी
बस रेल-गाड़ियाँ लाशों से भरी चलती थी
मौत मज़हब की बात करती थी
सहमी हुई दुआएँ अजूबों को याद करती थी
जिन्दगी अब एक लकीर की मोहताज़ थी
कल रात जो चीख सुनी वो कोई जानी – पहचानी ही आवाज थी
पीछे छूट गए घरों में अब खौफ रहता था
घर भी उसके , गांव भी उसके , शहर भी उसके
भागते इन्सानों को देख बस हसता रहता था
प्यार मुहब्बत पटरियों पे पड़े मिलते थे लहूलुहान
सरहद पे दौड़ती रेलगाड़ियाँ थी शायद इस बात से अंजान
कहने को तो हजारों लोग जो उन रेलगाड़ियों में सवार हुए
पर बड़ी कोशिशों के बाद भी, बस मातम ही थे जो सरहद के आर पार हुए ।